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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

भगवान् कैसे पकड़े जायँ?

आजका प्रकरण है कि भगवान् कैसे पकड़े जायें। शास्त्रोंमें इसके बहुत-से उपाय बताये गये हैं। भगवान्ने गीतामें विशेषरूपसे यह बात बतायी है। यों तो गीतामें योग, ज्ञान, भक्ति सभीकी बातें हैं, किन्तु जहाँ सुगम शब्द आया है वह भक्तिके लिये ही आया है।

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।
(गीता ८।१४)

जो पुरुष निरन्तर चिन्तन करता हुआ मेरी भक्ति करता है उसके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।

भगवान्ने नवें अध्यायमें भक्तिका ही उपदेश दिया है। यह राजविद्या है, अति गोपनीय बात है। इसके समान कोई पवित्र नहीं है, उत्तमसे भी उत्तम है, प्रत्यक्ष फल है। करनेमें भी सुगम है।

राजविद्या राजगुहां पवित्रमिदमुक्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धम्य सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।
(गीता ९।२)

यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब गोपीनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है।

जब ऐसी बात है तब सब लोग काममें क्यों नहीं लाते ?

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवत्र्मनि।।
(गीता ९।३)

हे परन्तप! इस उपर्युक्त धर्ममें श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसारचक्र में भ्रमण करते रहते हैं।

भगवान् कहते हैं-

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।
(गीता ९।३४)

मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्माको मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।

इसके पूर्वमें तो और बातें बतायीं, यहाँ सार कहते हैं-तू मुझमें मन लगानेवाला हो, क्योंकि जो मेरेमें मन लगाता है उसका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। इसमें चार बातें बतायीं-मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन जा, मेरा पूजन कर, मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार करनेसे मुझे ही प्राप्त होगा। यही बात भगवान्ने अठारहवें अध्यायमें पुन: कही-

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मा नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।
(गीता १८।६५)

हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करनेसे तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।

पूर्वमें चार बातें कहीं, वही यहाँ कहकर उसका फल दिखलाया कि तू मुझे ही प्राप्त होगा, मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ। कितने जोरके साथ चार बातें कहीं-

मन्मना भव- मनको भगवान्में लगा देना। तेरा मन संसारके पदार्थोंमें जा रहा है, वह मेरेमें लगा दे।

मद्भक्त:- मेरा भक्त बन जा, भक्तिभावपूर्वक प्रेममें विह्वल होकर, मुझमें ही प्रेम करनेवाला हो।

मद्याजी- मेरा पूजन कर।

मां नमस्कुरु— मेरेको ही नमस्कार कर।

इन चारोंके पालन करनेसे परमात्मा मिल जायें इसमें तो बात ही क्या है, एकसे भी मिल जाते हैं। केवल हमारा मन भगवान्में लग जाय तो परमात्मा मिल जायेंगे। यह शास्त्रसम्मत और युक्तिसंगत बात है।

गीता, भागवत, महाभारत, रामायणमें जगह-जगह यह बात मिलती है। भगवान्के स्मरणसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-ईश्वर प्रणिधानाद्वा।

ईश्वरकी भक्ति करनेसे मन वशमें हो जाता है। उनके नामका जप और अर्थकी भावना करनी चाहिये। ॐ का जप करे, किन्तु यह नहीं समझना चाहिये कि एक यही नाम भगवान्का है। चाहे जिस नामका जप करो। रामायणमें रामनामकी, भागवतमें कृष्णनामकी, वेदोंमें ॐ की महिमा गायी गयी है। सारे नाम परमात्माको लक्ष्य करानेवाले हैं। महर्षि पतञ्जलि ॐ के उपासक थे, इसीलिये ऐसा कहा। गीतामें तो भगवान्ने जगह-जगह कहा है-

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुतानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
(गीता ९।२२)

जो पुरुष मेरा अनन्य चिन्तन करते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।

वहन करनेका तात्पर्य कुलीकी तरह ढोना है क्या? भगवान् कुलीकी तरह बन जाते हैं। यह प्रेमकी बात है। माता-पिता बालकका बोझ उठायें तो क्या हानि है?

हमलोग इन्द्रतक बन गये, किन्तु भगवान्की प्राप्ति नहीं हुई, परमात्माकी प्राप्ति कभी नहीं हुई, उसी अप्राप्तकी प्राप्तिका नाम योग है। जो प्राप्त है उसकी रक्षाका नाम क्षेम है। भगवान् कहते हैं। मेरा भक्त जहाँतक पहुँच गया है, उसकी रक्षा करता हूँ एवं आगे बढ़ाता हूँ।

अनन्य चिन्तनसे भगवान् मिल जाते हैं इसके बहुतसे उदाहरण हैं। ध्रुवजीने भगवान्का ध्यान लगाया, उनको भगवान्की प्राप्ति हो गयी। ध्रुवजीकी कथा प्रसिद्ध है।

ध्यान करता है, दोनों एक ही हैं। भगवान् अपने भक्तोंकी इच्छानुसार संसारमें वही रूप धारण करके आ जाते हैं। जिस रूपमें जो उपासना करता है, उसी रूपमें भगवान् उसे दर्शन दे देते हैं। केवल मन लगा देनेसे भी भगवान् दर्शन दे देते हैं। ऐसा ध्यान लगाना चाहिये कि अपने-आपका भी ध्यान न रहे। भागवतकी कथा है-दत्तात्रेयने कहा कि ध्यान मैंने बाण बनानेवाले कारीगरसे सीखा था, वह बाण बनाता था राजाकी फौज निकल गयी उसकी पता ही नहीं चला। जैसे कारीगरका ध्यान बाण बनानेमें था, ऐसे ही हमलोगोंका भगवान्में होना चाहिये। ध्रुवकी अनन्य वृत्ति है, काम करते हुए भगवान्का ध्यान करना मुख्य वृत्ति है। व्यवहार कालमें मुख्य वृत्तिसे ध्यान करना चाहिये। अनन्य वृत्तिसे ध्यान करनेसे काम नहीं कर सकेंगे।

जैसे मछलीको जलसे निकाल देनेपर वह तड़पती है, जलके है। उसके हृदयमें जल वास करता है, इसी प्रकार केवल भगवान्में मन लगानेसे ही परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। हम अपने जीवनकी भी परवाह नहीं करें। भगवान्में मन लगा दें। भगवान् कहते हैं-

देवान्देवयजो यान्ति मद्रता यान्ति मामपि।।
(गीता ७।२३)

देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्तमें वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।

भाव यह है कि तू मेरा भक्त बन जा, संसारमें कोई चीज है तो वह प्रेम ही है। उसके विस्मरण होनेसे व्याकुल हो जाना चाहिये, जैसे गोपियाँ व्याकुल हो जाती थीं। प्रेममें वाणी गद्गद हो जाती है, अश्रुपात होने लगता है, रोमाश्च होने लगता है।

महारानी सीताजीको देखो, बार-बार मरनेको तैयार हो जाती हैं, भगवान्का ही ध्यान है। इसी प्रकार भगवान् भी सीताके लिये व्याकुल हो जाते हैं।

राजा नल दमयन्तीको छोड़कर चले गये, वह अपने पतिके वियोग में तड़प रही है, यही दशी भगवान् वियोग में हो जाय तो शीघ्र ही भगवान् मिल जाते हैं। जिसका ऐसा प्रेम हो उसे नहीं है। यहीं तुमको शान्ति मिल जायगी, शान्ति भी कौन-सी- परम शान्ति।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा।

धर्म्यम्-इससे बढ़कर कोई भी धर्म नहीं हो सकता।

अव्ययम्-कौन्तेय! प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति। मेरे भक्तोंका नाश नहीं होता।

सुसुखम्-और कुछ न बने, भगवान्के नाम-जपमें कौनसा परिश्रम है, इससे बढ़कर सुगम क्या हो सकता है।

मद्याजी-पत्र पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।
(गीता ९।२६)

जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।

यहाँ साफ कहते हैं मैं आकर खाता हूँ। वे प्रेमसे माँगकर खा लेते हैं, छीनकर खा लेते हैं। दुर्योधनकी सभामें महाराज कृष्णचन्द्रजी गये। दुर्योधनने कहा-आप हमारी चीजोंको स्वीकार क्यों नहीं करते? महाराज कृष्णचन्द्रजीने कहा-दो ही समय किसीकी चीज ग्रहण की जाती है या तो जहाँ प्रेम होता है या जहाँ आपत्ति होती है। प्रेम तुममें नहीं है, आपत्ति मेरेपर नहीं है। तुम मेरी बातको मान लोगे तो मैं तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार करूंगा। विदुरके घर भगवान् बिना बुलाये जाते हैं। पुराणोंकी बात है-

विदुरजीके घर भगवान् गये, पुकार लगायी, उनकी स्त्री स्नान कर रही थी। उसे भगवान्की वाणी सुनकर होश नहीं रहा, वह नग्न ही चली आयी, भगवान्ने अपना पीताम्बर उसके ऊपर डाल दिया। घरमें केले थे, उनका छिलका भगवान्को खिलाने लगी। विदुरजी आये, देखा यह क्या हो रहा है, फिर उनको केला देने लगे। भगवान्ने कहा यह उतना मीठा नहीं है।

एक-एकके कई उदाहरण मिलते हैं।

पत्र-द्रौपदी। पुष्प-गजेन्द्र। फल-शबरी। तोयं-राजा रन्तिदेव।

मां नमस्कुरु-केवल प्रणाम करनेसे भी भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान् श्रीकृष्णको एक बार किया गया प्रणाम दस अश्वमेधयज्ञसे बढ़कर है। भगवान्को प्रणाम करनेवाला वापस लौटकर नहीं आता-

एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो
दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म
कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय।।
(भीष्मस्तवराज ९२)

भगवान् श्रीकृष्णको एक बार भी प्रणाम करनेसे दस अश्वमेधयज्ञके समान फल होता है। दस अश्वमेधयज्ञ करनेवाला तो पुनर्जन्म पता है, किन्तु भगवान्को प्रणाम करनेवाला सदाके लिये संसारके आवागमनसे मुक्त हो जाता है यह विशेषता है।

यदि कहो हम तो नित्य प्रणाम करते हैं, हमारा कल्याण नहीं हुआ। आप निराश क्यों होते हैं। मरनेके बाद हम वापस आयें तो हमको निराश होना चाहिये।

इस प्रकार भगवान्की भतिकी महिमा है। श्रद्धा-प्रेम हो तो भगवान् प्रणाम करनेसे इसी जन्ममें, इसी समय प्राप्त हो सकते हैं। आदर, श्रद्धा, विश्वासकी विशेष महिमा है। इससे यह बात सिद्ध हुई कि अनन्य भक्तिसे भगवान् तुरन्त मिल जाते हैं। भक्तिका एक अंग भी हमारेमें हो तो भगवान् मिल जाते हैं। प्रह्लादजीने पिताजीसे नवधा भक्ति बतायी थी।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥

इसकी इतनी महिमा है कि इसके एक अंगको धारण कर ले तब भी कल्याण हो जाता है। यही बात भगवान्के पकड़नेके विषयमें है। हृदयसे भी वे पकड़े जाते हैं। जैसे सूरदासजीने पकड़ा था-

बाँह छुड़ाये जात ही निबल जानिके मोहि।
हिरदेसे जब जाहुगे तब पुरुष बदौंगो तोहि।।

वाणीसे पकड़ना उनके गुणगान करना है, उससे भी पकड़े जाते हैं। भगवान्के चरणोंको हम पकड़ लें, यह हाथोंसे पकड़ना है। भगवान्के गुणोंको सुनना यह कानोंसे पकड़ना है। हाथोंसे सेवा करें। शरीरसे साष्टांग प्रणाम करें। मन, वाणी, शरीर, इन्द्रियाँ सबसे भगवान्को पकड़ें। आप चाहे मनसे पकड़ें, चाहे शरीरसे पकड़ें, सबमें प्रेम आवश्यक है।

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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